जाति की उत्पत्ति के ब्राह्मणवादी सिद्धान्त (Brahmanical theory of the origin of caste) – भारत में जाति व्यवस्था की एक निश्चित सामाजिक वि संरचना होने के कारण इसे दृढ़ सामाजिक व्यवस्था मानना उचित है अथवा जाति को एक वैचारिक अथवा सांस्कृतिक व्यवस्था माना जा सकता है।
इस जाति व्यवस्था के विभिन्न पक्षों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि इस जटिल और व्यापक व्यवस्था की उत्पत्ति किस प्रकार से हुई है। विभिन्न भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने अपने-अपने विचारों द्वारा भिन्न भिन्न आधारों पर जाति की उत्पत्ति को स्पष्ट किया है। इसी में एक सिद्धान्त ब्राह्मणवादी सिद्धान्त है।
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के ब्राह्मणवादी सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक जी० एस० धुरिये है, तथा इसका समर्थन अब्वेडुबाय नामक विद्वान ने किया है।
जी० एस० धुरिये के अनुसार, भारत की जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति ब्राह्मणों के एक चतुर और सुनियोजित योजना का परिणाम है। अपने कथन को स्पष्ट करने के लिए धुरिये ने प्रजातिय, धार्मिक तथा पवित्रता एवं अपवित्रता सम्बर्धी विचारों को भी सहायता ली है। इसके अनुसार भारत में आने से पहले ही आर्यन प्रजाति के लोगों में वर्गभेद, कर्मकाण्डों की प्रधानता और निम्नवर्ण के लोगों से दासों के समान व्यवहार जैसी विशेषताओं का प्रचलन था।
यहाँ आकर आर्यों ने जब द्रविडों पर विजय प्राप्त कर ली, तब उनसे न केवल दासों के समान व्यवहार करना आरम्भ कर दिया बल्कि कर्मकाण्डों को पवित्रता के आधार पर वे धीरे-धीरे स्वंय भी ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य जैसे तीन वर्षों में विभाजित हो गये। प्रारम्भ में इन तीनों वर्षों के बीच विवाह व्यवसाय खानपान एवं सामाजिक सम्पर्क से सम्बंधित किसी प्रकार के प्रतिबंध नहीं थे यद्यपि यह तीनों वर्ण द्रविड़ो से अपना मिश्रण रोकने के सभी सम्भव प्रयास करते रहते थे।
इसके बाद यहाँ एक ऐसी इण्डो आर्यन संस्कृति का विकास होने लगा, जिसने ब्राह्मण वर्ण के सबसे अधिक पवित्र मानकर उसे विशेष अधिकार दे दिये। स्वंय ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति के सुरक्षित करने के लिए अनुलोम विवाह के नियम तथा पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणा का व्यापक रूप से प्रचार किया। इसी के फलस्वरूप अधिक पवित्र जातियाँ अपने से कम पवित्र जातियों से सामाजिक सम्पर्क, विवाह एवं खान-पान के प्रतिबन्ध भी अपनाने लगीं। यह प्रक्रिया उत्तर भारत से आरम्भ होकर दक्षिण भारत तक फैल गई तथा पवित्रता एवं अपवित्रता के आधार पर जातियों का विभाजन निरन्तर बढ़ता गया।
यदि हम ब्राह्मणों को दिये गये अधिकारों को देखे तो इसमें कुछ हद तक यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मणों को ही वेदों का अध्ययन करने का अधिकार दिया गया है, उन्हें ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है, ब्राह्मण चाहे अज्ञानी हो, उसका आदर किया जाना चाहिए, उसके सभी अपराध क्षम्य है।इस प्रकार जी० एस० धुरिये ने यह निष्कर्ष दिया है कि “भारत की जाति व्यवस्था इण्डो-आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों की सन्तान है, जिसका पालन पोषण-गंगा यमुना के मैदानी भागों में हुआ है और यही से जाति के देश के दूसरे भागों में ले जाया गया।
समालोचना – जाति की उत्पत्ति का ब्राह्मणवादी सिद्धान्त भीएक-एक वर्ण के अन्दर बनने वाली कई जातियों की उत्पत्ति को स्पष्ट नहीं करता। इससे विभिन्न जातियों के व्यवसाय एक दूसरे से भिन्न होने का कोई प्रमाणिक कारण नही मिल पाता है। यह सम्भव है कि ब्राह्मणवादी संस्कृति के द्वारा इस व्यवस्था को सुरक्षित रखा गया लेकिन एक नियोजित योजना के आधार पर इतनी व्यापक संस्था को स्पष्ट नही किया जा सकता है।
निष्कर्ष
भारत की जाति व्यवस्था इण्डो-आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों की सन्तान है, जिसका पालन पोषण-गंगा यमुना के मैदानी भागों में हुआ है और यही से जाति के देश के दूसरे भागों में ले जाया गया।
FAQ
Q.जाति की उत्पत्ति का सिद्धांत कौन है?
A. सही उत्तर व्यावसायिक सिद्धान्त है। व्यावसायिक सिद्धांत: नेस्फील्ड ने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज के व्यावसायिक विभाजन का प्राकृतिक उत्पाद माना।